Saturday, June 24, 2017

जबलगि नदी न समुंद समावै, तब लगि बढ़ै हंकारा। ...(रैदास)

सद्गुरु का काम है तुम्हारे भीतर सोये हुए गुरु को जगा देना, बस। तब गुरु का काम पूरा हो गया। अब अगर वह इंच-इंच तुम्हारे जीवन की व्यवस्था बिठाता रहे तो तुम्हारे जीवन में कभी व्यवस्था आ ही नहीं सकती। और रोज शंकाएं खड़ी होंगी और रोज अड़चने आयेंगी। और अगर तुम बंधे नियमों से जियोगे तो जिंदगी तो रोज बदल जाती है। तुम्हारे नियम होंगेबंधे-बंधाए, उनका जिंदगी से कोई तालमेल नहीं होगा। तिम रोज अड़चन में पाओगे अपने को कि अब क्या करूं?
जिंदगी बदल गयी, नियम पुराना। नियम बना था जब तुम बैलगाड़ी में बैठते थे और काम ला रहे हो अब जब कि तुम हवाई जहाज में उड़ रहे हो। इसलिए कोशिश सद्गुरु तुम्हें बाह्य व्यवस्था नहीं देता, अन्तर-बोध देता है।
रैदास कहते हैं: 'जब मन मिल्यौ आस नहिं तन की तब को गावनहारा।' तुम्हारा मन परमात्मा से मिल जाए, बस काम हो गया। फिर न कोई गीत है न कोई गाने वाला है, न गाने का कोई सवाल है। फिर कहने को कुल भी नहीं। फिर तुम एक सहज स्फूर्त जीवन जियोगे, जिस पर ऊपर से कुछ भी आरोपित नहीं होता---अंतस से प्रवाहित होता है।
'जबलगि नदी न समुंद्र समावै, तब लगि बढ़ै हंकारा।'
नदी जब तक समुद्र में नहीं गिर जाती तब तक बड़ा शोर मचता है। 'हंकारा' शब्द दो अर्थ रखता है: एक तो शोरगुल और एक अहंकार । दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
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मन चंगा तो कठौती में गंगा!
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Tuesday, January 10, 2017

.चेतना: प्रश्न करते मन के पार.

क्या तुम प्रश्न पूछना चाहते हो?
अथवा कि तुम उत्तर पाना चाहते हो?
क्योंकि यदि तुम प्रश्न पूछना ही चाहते हो तो तुम्हें उत्तर प्राप्त नहीं होंगे।
और यदि तुम उत्तर पाना चाहते हो तो तुम्हें प्रश्न पूछने की आज्ञा नहीं मिल सकती।
क्योंकि, उत्तर उस चेतना में हैं जहाँ कि प्रश्न अब तक नहीं उठे हैं, अथवा कि उखाड़ कर बाहर फेंक दिए गये हैं।
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Monday, January 9, 2017

जय गोपाल! .. लम्बी उम्र जीने का राज क्या है?

हमें यह भ्रांति है कि हम अपने जीवन के नियंता हैं। हमें लगता है कि हम न सम्भालेंगे तो कौन सम्भालेगा!
और बड़ा मजा है कि क्या सम्भाल रहे हो तुम? जन्म हुआ तुम्हारा, यह तुमने तय किया था? फिर तुमने श्वांस लेनी शुरू कर दी, यह तुमने ली थी? फिर एक दिन श्वांस बंद हो जायेगी, तुम लेना भी चाहो तो न ले सकोगे।
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मुल्ला नसीरुद्दीन से कोई पूछ रहा था कि आपकी ज्यादा लम्बी उम्र का क्या राज है?
मुल्ला ने कहा: कुछ नहीं। सांस लेते रहना। बस सांस बंद मत करना। कुछ भी हो जाए, सांस लेते रहना।
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मगर कैसे लोगे सांस? मौत आयेगी तब जो सांस बाहर गयी, नहीं लौटेगी, तब?
अपनी सांस पर भी तो हक नहीं है, और किस बात पर हक होगा?
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लेकिन हमें भ्रांति है कि हम नियंता हैं: अगर हमने अपनी व्यवस्था न की तो सब बिखर जायेगा। तुम्हारी व्यवस्था के कारण बिखर रहा है। तुम कृपा करो और व्यवस्था से हट जाओ। और तुम कह दो उसी को कि तू संभाल! जहां बैठायेगा, बैठ जायेंगे। जैसी तेरी मर्जी। तेरी मर्जी से हम राजी हैं।
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ऐसा कहते ही तुम अचानक पाओगे, सब व्यवस्था बैठने लगी। तुम नाहक ही बोझ लिये चल रहे हो। बोझ उस पर छोड़ दो। तुम निर्भार हो सकते हो।
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सार यही है कि निर्भार हो जाओ तो तुम्हारे जीवन में मस्ती आ जाए। 'भजन भाव में मस्त डोलती!'--अब रही नहीं कोई चिंता। व्यवस्था न रही, नियंता न रहे--तो चिंता न रही। और तभी 'भजन भाव में मस्त डोलती, गिरधर पे बलि जाए।'
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और यही मार्ग है--अपने असली घर तक पहुंचने का।
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मैं तो गिरधर के घर जाऊं।
गिरधर म्हारो सांचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊं।
रैन पड़ै तब ही उठि जाऊं, भोर भये उठि आऊं।
रैन दिना बाके संग खेलूं, ज्यूं-ज्यूं वाहि रिझाऊं।
जो पहिरावै सोई पहरूं, जो दे सोई खाऊं।
मेरी-उनकी प्रीत पुराणी, उन बिन पल न रहाऊं।
जहां बिठावै तित ही बैठूं, बेचैं तो बिक जाऊं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊं।
मैं तो गिरधर के घर जाऊं!
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Saturday, January 7, 2017

*भक्ति के मार्ग में संगति का इतना मूल्य क्यों?*

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बिना साधु संगति के लोकलाज कहां खोओगे? बिना साधु-संगति के तुम्हारी जड़ परंपराएँ, लकीरें, लीकें कैसे मिटेंगी? बिना साधु-संगति के कैसे तुम कह सकोगे; 'छांड़ दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई!'
साधु के पास बैठने का अर्थ है कि वह खबर लाएगा तुम्हारे पिंजरों में-- खुले आकाश की। वह जंजीरों से मुक्त होने का उपाय बताएगा। साधु का अर्थ है कि तुम्हारे भीतर परमात्मा को पाने की प्यास को प्रज्जवलित करेगा।
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भक्त करते क्या हैं। साधु करते क्या हैं? यह मीरा क्यों भगत देख राजी हुई? वहां होता क्या है? पारस की तरह साधु को छूने से तुम भी साधु होने लगते हो। वहां एक रूपांतरण हो रहा है।
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जिससे हिल जाएँ अर्श के पाए
अपने उस दर्द-ओ-गम की बात करो।
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वहां परमात्मा के विरह की पीड़ा की चर्चा होती है।
'जिससे हिल जाएँ अर्श के पाए।' आकाश के भीतर अगर कोई कहीं पाए हों तो हिल जाएँ, ऐसी बिरह की पीड़ा की बात होती है। अपने उस दर्द-ओ-गम की बात करो जो रुला दे तमाम आलम को बस उसी चश्मे-नम की बात करो।
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Friday, January 6, 2017

भक्ति: गीत या शास्त्र? क्या भक्ति का शास्त्र सम्भव है?

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पहली तो बात, भक्ति का शास्त्र सम्भव नहीं है; फिर भी शस्त्र बनाना पड़ा है। बहुत सी बातें सम्भव नहीं हैं; फिर भी करनी पड़ती हैं। जैसे परमात्मा को नहीं कहा जा सकता, फिर भी कहना पड़ता है। कोई कहने क उपाय नहीं है। जो भी हम कहेगे गलत होगा। कहा नहीं, कहते ही गलत हो जायेगा।

Saturday, December 10, 2016

CAE Jabalpur Alumni Association: Dear Friends...A long  awaited Acctt for Golden ...

CAE Jabalpur Alumni Association: Dear Friends...

A long  awaited Acctt for Golden ...
: Dear Friends... A long  awaited Acctt for Golden Jubilee Celebration has been activated in Jabalpur... Details are as follows A/C No  2...,
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dear Alumni,
Wish you all a very happy New Year-2017!!!
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peace & harmony!!!
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... dinesh kumar pandey,
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Sunday, May 29, 2016

पवित्रता—ध्यान का परिणाम

ध्यान सागर की तरह है
जो गंदी नदियों को ग्रहण करता है और फिर भी शुद्ध रहता है।
तुम्हें उसके पहले शुद्ध होने की आवश्यकता नहीं।
परंतु तुम उसमें से शुद्ध होकर निकलोगे।
ध्यान बेशर्त है।
पवित्रता उसकी प्रथम अनिवार्यता नहीं—बल्कि परिणाम है।
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